पढ़े जरूर - थैंक यू फॉर कमिंग सिनेमाघरों में रिलीज
फाइल फोटो


महिलाओं की यौन इच्छाओं और आशाओं पर कुछ कहानियां हिंदी सिनेमा में कही गई हैं। निर्माता रिया कपूर और एकता कपूर की जोड़ी महिला दोस्तों की जिंदगानी पर फिल्म वीरे दी वेडिंग बना चुकी हैं, जिसमें कई मुद्दों पर बात की गई थी।अब उनके प्रोडक्शन में बनी फिल्म थैंक यू फार कमिंग की कहानी भी तीन महिला दोस्तों के आसपास है, लेकिन इस बार मुद्दा अलग और कन्फ्यूजिंग है।

क्या है थैंक यू फॉर कमिंग की कहानी

फिल्म की कहानी दिल्ली की रहने वाली कनिका कपूर (भूमि पेडणेकर) से शुरू होती है। कनिका की परवरिश सिंगल मां (नताशा रस्तोगी) ने की है। घर में नानी (डॉली अहलूवालिया) भी है। कनिका को स्कूल में कांडू कनिका के नाम से बुलाया जाता है, क्योंकि वह कई ऐसी बातें कर जाती है, जिसकी उम्मीद उस उम्र में बच्चों से नहीं की जाती है।
फूड ब्लॉगर कनिका परियों की कहानी की तरह अपने मिस्टर परफेक्ट की तलाश में है, लेकिन 32 साल की उम्र तक भी वह परफेक्ट लड़का नहीं मिला है, जो उसे यौन सुख दे सके। इस चक्कर में वह तीन लोगों के साथ रिश्ते बनाकर तोड़ चुकी है।

उसकी नानी का मानना है कि जिंदगी जीने की लिस्ट में शादी पर भी टिक मार्क होना जरूरी है। कनिका अरेंज मैरिज के लिए तैयार हो जाती है। सगाई वाले दिन नशे में चूर कनिका के साथ कुछ ऐसा होता है, जिसकी तलाश उसे कब से थी।

कैसा है स्क्रीनप्ले और अभिनय

फिल्म का निर्देशन रिया कपूर के पति करण बूलानी ने किया है। सेलेक्शन डे सीरीज का निर्देशन कर चुके करण के लिए यह नया जोन था। ऐसे में उन्हें मजबूत कहानी की जरूरत थी, लेकिन राधिका आनंद और प्रशस्ति सिंह की लिखी यह कहानी कई मामलों में कमजोर साबित होती है।

अहम मुद्दे की ओर जाने का असफल प्रयास करती कमजोर कहानी के साथ करण कहां तक फिल्म को खींच पाते। खासकर आज के दौर में जहां डिजिटल प्लेटफॉर्म महिलाओं के नजरिए से दमदार कहानियां परोस रहा है। कनिका पेशे से फूड ब्लॉगर है, लेकिन आत्मनिर्भर महिला होने की झलक कहीं से दिखाई नहीं देती है।

वह शुरू से अंत तक वह केवल यौन सुख की तलाश ही करती रह जाती है। उसकी सहेलियां भी हर वक्त उसकी इस इच्छा पर ज्ञान देने के लिए उसके आसपास ही मौजूद रहती हैं। उन्हें भी कोई काम करते नहीं दिखाया गया है। फिल्म में किरदार तो बहुत हैं, लेकिन किसी के भी जिंदगी में फिल्म गहराई से नहीं जाती है।

फिल्म के संवाद कहीं-कहीं इतने निम्न स्तर के हो जाते हैं कि वह महिला और पुरुष दोनों को ही आहत कर सकते हैं। फिल्म जब मध्यांतर तक पहुंचती हैं, तभी दिमाग में प्रश्न घूमने लग जाता है कि इस फिल्म को बनाने का औचित्य क्या है? इसका जवाब अंत में यह मिलता है कि कनिका को यौन सुख पाने के लिए किसी की जरूरत ही नहीं है, जो फिर सही-गलत के बीच प्रश्न बनकर रह जाता है।

फिल्म में कनिका का हाईस्कूल की बच्ची को यह समझाना कि तुम जब सहज हो, तब किसी लड़के के साथ संबंध बनाना, उस नाजुक उम्र के लिए सही सलाह नहीं लगती है।

इसे लेखक को और जिम्मेदारी के साथ लिखना चाहिए था। करण ने फिल्म में किस स्कूल का रेफरेंस लिया है, पता नहीं, क्योंकि कानों में स्टाइलिश बालियां और नीले-हरे रंग के बालों में दिखाई देती स्कूल की हेड गर्ल वास्तविक स्कूल की लड़कियों से कोसों दूर लगती है।

कैसा है कलाकारों का अभिनय

फिल्म के क्लाइमैक्स में स्टेज पर भूमि के किरदार का लंबा-चौड़ा भाषण किसी नतीजे पर नहीं पहुंचता है। पूरी फिल्म का जिम्मा भूमि पेडणेकर पर ही है। वह सशक्त अभिनेत्री हैं, लेकिन यहां कमजोर कहानी को वह कब तक संभाल पातीं। उन्होंने स्क्रिप्ट के दायरों में रहकर अभिनय किया है।

अनिल कपूर छोटी सी भूमिका में भी अपनी छाप छोड़ते हैं। डॉली सिंह और शिबानी बेदी दोस्तों के रोल में जंचती हैं। शहनाज गिल, करण कुंद्रा और कुशा कपिला का फिल्म में होना ना होना बराबर है। तीनों रह-रहकर फिल्म में आते हैं और फिर बिना कुछ खास किए गायब हो जाते हैं।

शहनाज को अगर अभिनय में लंबी पारी खेलनी है तो उन्हें अपने अभिनय पर काम करने की बहुत जरूरत है। सुशांत दिवगीकर छोटी सी भूमिका में याद रह जाते हैं। नताशा रस्तोगी और डॉली अहलूवालिया जैसी प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों का किरदार भी अधपका लिखा गया है। रिक्रिएटेड गाना परी हूं मैं... याद रह जाता हैं।

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