हिन्दीतर भाषा भाषी क्षेत्रों में संत परम्परा विषय पर संगोष्ठी
फाइल फोटो


उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा आचार्य पशुाम चतुर्वेदी स्मृति समारोह के शुभ अवसर पर मंगलवार 25 व 26 जुलाई, 2023 को दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हिन्दी भवन के निराला सभागार लखनऊ में पूर्वाह्न 10.30 बजे से किया गया। सम्माननीय अतिथि डॉ0 अहिल्या मिश्र, डॉ0 सुमनलता रुद्रावझला, डॉ0 जशभाई पटेल, डॉ0 सोमा बन्द्योपाध्याय, डॉ0 मनोज कुमार पाण्डेय का उत्तरीय द्वारा स्वागत आर0पी0सिंह, निदेशक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा किया गया। 

नागपुर से पधारे डॉ0 मनोज कुमार पाण्डेय ने कहा- भारत संतों की धरती है। संत साहित्य की व्यापकता उसकी सहज मानवता है। संत साहित्य की शुरुआत तनाव व संघर्ष से होती है। संत साहित्य की शुरुआत ग्यारहवीं, बारहवीं शताब्दी से मानी जाती है। नाथ सम्प्रदायों ने संत साहित्य को आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभायी। संत नामदेव उसे संत मानते हैं- जो सभी प्राणियों में परमात्मा को देखता है, जिसकी वाणी सदा भगवान का नाम लेती रहती है। संत समाज को संकट से उबारने का कार्य करता है। संत सत्य का आराधक हुआ करते हैं।








कोलकाता से पधारी डॉ0 सोमा बन्द्योपाध्याय ने कहा- मनुष्य होने के लिए उसमें मनुष्यता का गुण होना चाहिए। मानवता को जो राह दिखाये। वही संत होता है। बांग्ला संत साहित्य का उद्देश्य मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने का कार्य करता है। बंगाल में चैतन्य महाप्रभु का स्थान संतों में प्रमुखता से लिया जाता है। वैष्णव धर्म में राधा-कृष्ण के अलौकिक प्रेम की व्याख्या की गयी है। चंडीदास ने अपने साहित्य में राधा के चरित्र का व उनका श्रीकृष्ण के प्रति प्रेमाभाव का सुन्दर चित्रण किया है। चंडीदास की कृतियों में राधा एक नायिका के रूप में उपस्थित हैं। रामकृष्ण परमहंस सर्व-धर्म समन्वय में विश्वास करते थे। वे एक ऐसे गुरू थे जिन को ख्याति उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द से मिली।

गांधीनगर से पधारे डॉ0 जशभाई पटेल ने - गुजराती साहित्य में संत परम्परा पर बोलते हुए कहा- संत किसी की निन्दा नहीं करता है। नरसी मेहता कृष्ण भक्ति में हमेशा लीन रहते थे। कृष्ण भक्ति काव्य में नरसी मेहता का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जशभाई पटेल ने नरसी मेहता की रचित संतवाणी का भी पाठ किया। गुजरात प्रदेश संत कवियों से भरा पड़ा है।
 
हैदराबाद से पधारी डॉ0 सुमनलता रुद्रावझला ने तेलगु साहित्य में संत साहित्य परम्परा पर बोलते हुए कहा- संत वह होता है जो अपने वाणी को अनहद नाद तक ले जाता है। एकोअह्म से अह्म ब्रहास्मि तक स्वयं को ले जाता है। हर कवि संत नहीं होता है। लेकिन हर संत हमेशा कवि होता है। रामानुचार्य जी का नाम संतों में प्रमुखता से लिया जाता है। भारतीय संस्कृति मानवतावादी दृष्टिकोणों से भरी है। संत कवि अपने नाद को बहुत अच्छी से समझता है।

संतों ने भी भाषा के माध्यम से बड़ी क्रांति की है। संतों का मानना है एक ही परमात्मा हम सबमें विद्यमान है। संतों ने लोकभाषा के माध्यम से लोकधर्म को निभाया है। ‘‘ घट-घट में वासी राम‘‘ संत परम्परा की आधार शिला रही है। संतो में दो धाराओं के संत रहे निर्गुण व सगुण।

हैदराबाद से पधारी डॉ0 अहिल्या मिश्र ने कहा- मिथिला में ज्ञान संवाद-विवाद की परम्परा बड़ी प्राचीन रही है। ज्ञान व भक्ति की विचार धारा का जन्म मिथिला प्रदेश से होती हुई आगे बढ़ी है। मिथिला संत परम्परा में सूफी परम्परा भी सम्मिलित होती गयी। संत साहित्य में साधना प्रधान रही है। विद्यापति की रचनाएं प्रेम से ओत-प्रोत हैं। उनकी रचनाएं प्रेम की पराकाष्ठा को प्राप्त करती हैं। विद्यापति का काव्य स्वरूप भक्तमय है। संत साहित्य में ज्ञान व भक्ति का सम्मिश्रण है।





इस अवसर पर श्री प्रदीप अली एवं सुश्री आकांक्षा सिंह द्वारा तुलसीदास, कबीरदास, रैदास, मीराबाँई व नरसी मेहता की कवितओं की संगीतमय प्रस्तुति की साथ में तबलावादक श्री नितीश भारती, गिटार वादक, मनीष कुमार द्वारा गणेश वंदना, पायो जी मैने राम, ठुमक चलत राम चन्द्र, वैष्णव जन ते तेने व मेरे राना जी मैं  गोविन्द आदि कवितओं के माध्यम से प्रस्तुत किया गया।

डॉ0 अमिता दुबे, प्रधान सम्पादक, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान ने कार्यक्रम का संचालन किया। 
इस संगोष्ठी में उपस्थित समस्त साहित्यकारों, विद्वत्तजनों एवं मीडिया कर्मियों का आभार व्यक्त किया। कार्यक्रम में समाजशास्त्री डॉ अनीता मिश्रा और माननीय उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता  असित चतुर्वेदी, प्रशान्त कुमार श्रीवास्तव, रूपेश कुमार कसौधन, धर्मेन्द्र कुमार दीक्षित आदि  उपस्थित रहें।


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